Ganapati Atharvashirsha - श्री गणपत्यथर्वशीर्षम्
As the name suggests, this Stotra is associated with Lord Ganesha. It is related to Atharva Veda. Lord Ganesha is described to be the same as the ultimate truth and reality i.e. the Supreme Being - Brahman.
Transliteration, and meaning in Hindi are given for better understanding.
This mantra is for the benefit of Human kind.
This post can be referenced by Sanskrit learners and others interested in learning Mantra Pushpanjali.

श्रीगणेशाय नमः।
शांतिमंत्राः।
ॐ भद्रं कर्णेभिःशृणुयाम देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः।स्थिरैरंगैस्तुष्टुवांसस्तनूंभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ॥१॥
ॐ स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नःपूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥२॥
ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।
॥ श्री गणपत्यथर्वशीर्षम् ॥
ॐ नमस्ते गणपतये। त्वमेव प्रत्यक्षं तत्त्वमसि। त्वमेव केवलं कर्तासि। त्वमेव केवलं धर्तासि। त्वमेव केवलं हर्तासि। त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि। त्वं साक्षादात्मासि नित्यम् ॥१॥
ऋतं वच्मि। सत्यं वच्मि ॥२॥
अव त्वं माम्। अव वक्तारम्। अव श्रोतारम्। अव दातारम्। अव धाताराम्। अवानूचानमव शिष्यम्। अव पश्चात्तात्। अव पुरस्तात्। अव उत्तरात्तात्। अव दक्षिणात्तात्। अव चोर्ध्वात्तात्। अवाधरात्तात्। सर्वतो मां पाहि पाहि समन्तात् ॥३॥
त्वं वाङ्मयस्त्वं चिन्मयः। त्वमानन्दमयस्त्वं ब्रह्ममयः। त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि। त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ॥४॥
सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते। सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति। सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति। सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति। त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभः। त्वं चत्वारि वाक्पदानि ॥५॥
त्वं गुणत्रयातीतः। त्वं देहत्रयातीतः। त्वं कालत्रयातीतः। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम्। त्वं शक्तित्रयात्मकः। त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम्। त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं रुद्रस्त्वमिन्द्रस्त्वमग्निस्त्वं वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चन्द्रमास्त्वं ब्रह्म भूर्भुवः स्वरोम् ॥६॥
गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम्। अनुस्वारः परतरः। अर्धेन्दुलसितम्। तारेण रुद्धम्। एतत्तव मनुस्वरूपम्। गकारः पूर्वरूपम्।
अकारो मध्यमरूपम्। अनुस्वारः श्चान्त्यरूपम्। बिन्दुरुत्तर रूपम्। नादः सन्धानम्। संहिता सन्धिः। सैषा गणेशविद्या। गणक ऋषिः।
निवृद्गायत्री छन्दः। गणपतिर्देवता। ॐ गं गणपतये नमः ॥७॥
एकदन्ताय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ॥८॥
एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमङ्कश धारिणम्। रदं च वरदं हस्तैबिभ्राणं मूषकध्वजम्॥ रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम्। रक्तगन्धानुलिप्तांग रक्तपुष्पैः सुपूजितम्।। भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम्। आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृतेः पुरुषात्परम्।।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वरः ॥९॥
नमो व्रातपतये नमो गणपतये नमः प्रमथपतये नमस्तेऽस्तु लम्बोदराय एकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय वरदमूर्तये नमः ॥१०॥
फलश्रुतिः
एतदथर्वशीर्षम् योऽधीते। स ब्रह्मभूयाय कल्पते। स सर्वविघ्नैर्न बाध्यते। स सर्वतः सुखमेधते। स पञ्चमहापापात्प्र मुच्यते। यमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति। प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति। सायं प्रात: प्रयुञ्जानोऽपापो भवति। सर्वत्राधीयानोप विघ्नो भवति। धर्मार्थकाममोक्षं च विन्दति। इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम्। यो यदि मोहाद्दास्यति स पापीयान् भवति। सहस्रावर्तनाद्यं यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ॥११॥
अनेन गणपतिमभिषिञ्चति। स वाग्मी भवती। चतुर्थ्यामनश्नन् जपति। स विद्यावान भवति। इत्यथर्वण वाक्यम्। ब्रह्माद्यावरणं विद्यात्। न बिभेति कदाचनेति ॥१२॥
यो दुर्वाङ्करैर्यजति। स वैश्रवणोपमो भवति। यो लाजैर्यजति। स यशोवान् भवति। स मेधावान् भवति। यो मोदकसहस्रेण यजति। स वाञ्छित फलमवाप्नोति। यः साज्य: समिद्भिर्यजति। स सर्वं लभते स सर्वं लभते।
अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग् ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति। सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंन्निधौ वा जप्त्वा। सिद्धमन्त्री भवति। महाविघ्नात् प्रमुच्यते। महादोषात् प्रमुच्यते। महापापात् प्रमुच्यते। स सर्वविद्भवति। स सर्वविद्भवति। य एवं वेद।। इति उपनिषत् ॥१३॥
ॐ सहानाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्य करवावहै तेजस्विनावधीतमस्तु। मा विद्विषावहै।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
हिंदी में अनुवाद
श्रीगणेशाय नमः।
शांतिमंत्राः।
हे ईश्वर,
हम अपने कानों से मंगल बातें सुनेंगे। अपनी आँखों से शुभ कृत्य ही देखेंगे। हमें जो जीवन मिला है, वह हम ईशस्तुती में ही व्यतीत करेंगे। यही प्रार्थना है। ॥१॥
ज्ञनवृद्ध ऋषियों से जिनकी कीर्ती सुनी है, वह इंद्र देवता हमारा कल्याण करें। सर्वज्ञ और सर्वसंपन्न सूर्य हमारा मंगल करें। गतिमान गरुड हमारा शुभ करें। वाणी का अधिपती देवगुरू हमें मोक्षप्राप्ती का मार्ग दिखाए। ॥२॥
ओम् शान्ति, शान्ति, शान्ति।
गणपति अथर्वशीर्ष
अथर्वण ऋषि कहते है,
हे गणों के स्वामी गणपति, तुम्हें प्रणाम।
तुम ही प्रत्यक्ष तत्व हो।
तुम ही कर्ता- करविता हो।
तुम ही धर्ता हो।
तुम ही हरण करनेवाले हो।
तुम ही इन सब रूपों में विराजमान ब्रम्ह हो।
तुम साक्षात अविनाशी आत्मस्वरूप हो॥१॥
मैं परमात्मा का यथार्थ स्वरूप बता रहा हूँ। मैं सत्य कहता हूँ॥२॥
तुम मेरी रक्षा करो। मेरी वाणी की रक्षा करो। तुम्हारा महिमा श्रवण करने वालों की रक्षा करो। ज्ञान देनेवाले आचार्य की रक्षा करो। ज्ञान प्राप्त करने वाले शिष्य की रक्षा करो। चारों दिशाओं से ( पूर्व, पश्चिम, उत्तर और दक्षिण ) मेरी संपूर्ण रक्षा करो॥३॥
तुम वाङ्मय हो, चिन्मय हो, आनंदमय हो और ब्रम्हमय हो। तुम सच्चिदानंद अद्वितीय रूप हो। तुम प्रत्यक्ष ब्रम्ह हो। तुम ज्ञान-विज्ञान के दाता हो॥४॥
तुम इस जगत के जन्मदाता हो। सारा जग तुम में लय होगा। संपूर्ण संसार तुम में ही निहित है। तुम ही जल, भूमि, आकाश और वायु हो। तुम चारों दिशाओं में व्याप्त हो॥५॥
तुम सत्व, रज, तम ये तीनों गुणों से भिन्न हो। तुम भूत, भविष्य और वर्तमान से भिन्न हो। तुम स्थल, सूक्ष्म और वर्तमान तीन्हों देहों से भिन्न हो। तुम मूलाधार चक्र में नित्य स्थिर रहते हो। तुम ही तीन प्रकार की शक्तियाँ (इच्छा, क्रिया और ज्ञान) हो। योगी नित्य तुम्हारा ध्यान करते हैं। तुम ही ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र, इंद्र, अग्नि, वायु और चंद्रमा हो। तुम में ही सगुण और निर्गुण का समावेश हैं॥६॥
‘गण’ के उच्चारण में प्रथम ‘ग’ का बाद में ‘अ’कार का उच्चारण करें। ॐकार का उच्चारण करें। ‘ग’कार इसका पूर्वरूप है। बिंदु का उत्तर रूप है। नाद संधान है। संहिता संविध है। ऐसी यह गणेश विद्या है। इस मंत्र के गणक ऋषि है। वह महामंत्र है- ॐ गं गणपतये नमः॥७॥
एकदंत, वक्रतुंड का हम ध्यान करते हैं। गजानन हमें सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा दें॥८॥
ध्यानधारणा करने के लिए गणेशजी के स्वरूप का वर्णन किया गया है।
एकदंत के चारों हाथों में पाक्ष, अंकुश, अभय, और मुद्रा धारण करते हैं। उनके ध्वजा पर मूषक का चिह्न है। यह लाल वस्त्र धारण करते हैं। चंदन का लेप लगाया है। लाल पुष्प धारण करते हैं। सबकी मनोकमना पूर्ण करने वाले सभी जगह में व्याप्त हैं। सृष्टि के रचयता हैं। एनका सच्चे हृदय से ध्यन करने वाला महायोगी है॥९॥
देवसमूह के नायक को नमस्कार। गणपति को नमस्कार। शिव के गणों के अधिनायक को नमस्कार। एकदंत, विघ्ननाशक, लंबोदर, शिवपुत्र, श्रीवरदमूर्ति को नमस्कार॥१०॥
फलश्रुती
इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, वह विघ्नों से दूर होता है, ब्रह्म को पाठ करने का अधिकारी हो जाता है। वह सभी सुख पाता है। वह पाँचों प्रकार के महापातकों से मुक्त हो जाता है।
सयंकाल को पाठ करने से दिन के दोष दूर हो ज्ते हैं। प्रातः पाठ करने से रात्रि के दोष दूर हो जाते हैं। दोनों समय पाठ करनेवाला निष्पाप हो जाता हो जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है।
इस अथर्वशीर्ष को, जो शिष्य नहीं है, उसे नहीं देना चाहिए। जो मोह के कारण देता है वह पातकी हो जाता है। हजार बार पाठ करने से उपासक सिध्दी प्राप्त कर सकता है। ॥११॥
इस अथर्वशीर्ष के उच्चारण के साथ जो गणपति को अभिषेक कराता है, वह उत्तम वक्ता बन जाता है। जो चतुर्थी के दिन उपवास करके जप करता है, वह विद्यासंपन्न हो जाता है। यह अथर्वण ऋषि का वचन है। जो इस मंत्र का जाप करके ब्रह्मप्राप्ती के लिए तपश्चर्या करेगा, वह भयमुक्त होगा। ॥१२॥
जो दुर्वांकुर के द्वारा गणपति की पूजा करता है, वह कुबेर के समान बनता है। जो लाजा के द्वारा पूजन करता है, वह यशस्वी बनता है।जो सहस्त्र मोदकों के साथ पूजा करता है, वह इच्छित फल प्राप्त करता है।
जो घृत के साथ समिधा द्वारा हवन करता है, वह सबकुछ प्राप्त करता है।
जो आठ ब्राम्हणों को उपनिषद का ज्ञान देता है, वह सूर्य के समान तेजस्वी होता है। सूर्यग्रहण के समय नदी के तट पर या प्रतिमा के समीप जपने से मंत्रसिध्दी होती है। वह महासंकट से दूर हो जाता है। महादोषों से मुक्त हो जाता है। महापापों से मुक्त हो जाता है। इस प्रकार को जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है। ॥१३॥
हे गणेशजी,
हम दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। (गुरू और शिष्य)
हम दोनों का एक साथ पोषण करें।
हम दोनों साथ मिलकर उर्जा और शक्ति के साथ कार्य करें। हमारा ज्ञान तेजस्वी रहें।
हमारी बुद्थि तेज हो।
हम दोनों एक- दूसरे का द्वेष न करें।
सर्व प्रकार से जगत में शांतता रहे।
ओम् शान्ति, शान्ति, शान्ति।